हमारे समाज में पुरुषों को ज्यादातर हिंसक, गुस्सा और बेसब्र प्रवृति दिखाया जाता रहा है। कोई भी जगह हो चाहे वह हमारी फिल्में रहीं हो या पुस्तकें भी जगह पुरुषों को इस प्रकार दर्शाया गया है। यह कितना सही है यह समाज और क्षेत्र पर भी निर्भर है।

लंबे समय से चली आ रही इस सोच को बदलने का काम वेस्टइंडीज की इतिहास की लेक्चरर डॉ. जीरोम तिलक सिंह ने किया । उन्होंने 19 नवंबर को इंटरनेशनल मेंस डे की शुरूआत की। जिसका उद्देश्य पुरुषों के बारे में बन चुकी आक्रमक पहचान में बदलाव लाना था। इसकी के साथ ही भारत में भी इसकी शुरूआत सन 2007 में हुई। हमारे यहां इसका श्रेय लेखिका उमा चल्ला को जाता है। उनका मानना है कि जब हमारी संस्कृत में शिव और शक्ति दोनों बराबर हैं तो पुरुषों के लिए भी सेलिब्रेशन का एक दिन जरूर होना चाहिए।

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अमेरिका से शुरू किया पुरुषों के हक में कैंपेन

एक महिला शादी के बाद नौकरी अपने मनमुताबिक विकल्प के तौर पर चुनती है लेकिन पुरुष के साथ ऐसा नहीं होता। महिलाओं को हमेशा समस्या से जोड़कर निर्बल दिखाया जाता है, जबकि पुरुष और महिला दोनों की अपनी-अपनी खूबियां हैं। शिव से शक्ति को अलग नहीं किया जा सकता, इसलिए उन्हें अर्द्धनारीश्वर कहा जाता है। जब दोनों बराबर हैं, तो सेलिब्रेशन पुरुष के लिए भी होना चाहिए। इसी सोच के साथ मैंने अमेरिका में रहकर कैंपेन शुरू किया। भारत में आकर जमीनी स्तर पर इसकी शुरुआत करना मेरे लिए संभव नहीं था। इसलिए मैंने डिजिटल प्लेटफार्म पर आवाज उठाई और इस विषय पर लिखना जारी रखा।

अभियान की शुरुआत में महिला अधिकारों के लिए पड़ने वाले लोगों के निगेटिव रिएक्शन मिले, लेकिन उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया। उनका कहना था, यह समाज पुरुष प्रधान है, लेकिन मैं ऐसा नहीं मानती। दरअसल, उस दौर में मैंने देखा महिला और उनकी समस्याओं को ज्यादा उठाया जाता था और पुरुषों की गलत तस्वीर पेश की जा रही थी। समस्याएं दोनों ओर हैं लेकिन दिखाया सिर्फ महिलाओं के पक्ष में जा रहा था। महिला दिवस मनाना अच्छा है लेकिन सभी पुरुषों की गलत छवि दिखाना ठीक नहीं है। पुरुषों को महिलाओं पर हावी माना जाता है, यह सब उसकी जिम्मेदारियों का हिस्सा होता है, उसके त्याग का हिस्सा होता है। लिहाजा, मेरा अभियान जारी रहा। अंतत: 2007 में बेहद छोटे स्तर पर भारत में पहली बार इंटरनेशनल मेन्स डे मनाया गया।

मूंछें सिर्फ पुरुषों की नहीं भगवान की शख्सियत का अहम हिस्सा रही हैं

जब से भगवान को समझना शुरू किया, तबसे देखा कि ज्यादा प्रतिमाओं और तस्वीरों में उन्हें बिना मूंछों के दिखाया गया है। मैंने एक लंबे समय तक स्टडी की। इतिहास पढ़ा, प्राचीन तस्वीरें देखीं, संस्कृत के श्लोक पढ़े, संस्कृत से अनुवादित तेलुगु साहित्य भी पढ़ा। इनसे एक बात साफ हुई कि मूंछें सिर्फ पुरुषों की नहीं भगवान की शख्सियत का अहम हिस्सा रही हैं। दक्षिण भारत के ज्यादातर मंदिरों में स्थापति प्रतिमाओं के चेहरे पर मूंछ हैं। यहां तक राजस्थान के म्यूजियम में रखी प्रतिमा में भगवान राम की मूंछ हैं। सिर्फ भारतीय ही नहीं दूसरे कल्चर की ऐतिहासिक अध्ययनों में मूंछ का जिक्र किया गया है। दाढ़ी और मूंछ को सात्विक इंसान बताया गया है। हम्पी के मंदिरों में भगवान के चेहरे पर मूंछ साफ तौर पर दिखाई गई हैं। भक्त जैसा सोचते हैं, भगवान को वैसा ही देखना चाहते हैं।

उमा के मुताबिक, ऐसा नहीं है पुरुष जो चाह रहे हैं वह उन्हें आसानी से मिल रहा है। समाज में महिला और पुरुष के बीच बैलेंस न होने का कारण है पुरुषों पर अतिरिक्त बोझ। महिला के लिए काम न करना एक पसंद हो सकती है लेकिन पुरुषों के मामले में ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा समझा जाता है कि हर दिन पुरुषों के नाम है और समाज भी पुरुषवादी है। महिला और पुरुष दोनों के बाद अलग-अलग शक्तियां और जिम्मेदारियां हैं। जब ये दोनों बराबर से साथ आते हैं तो चीजें बेहतर होती है। आने वाली पीढ़ियों को बेहतर माहौल देने के लिए हमें सकारात्मक रहने की जरूरत है।

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